सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक अहम फैसला सुनाया है जिसने डिजिटल युग में अधिकारों की सीमाओं को फिर से स्पष्ट किया है। अदालत ने साफ कहा कि मौलिक अधिकार नहीं WhatsApp यानी इस प्लेटफॉर्म तक पहुंच किसी नागरिक का संवैधानिक अधिकार नहीं है। यह निर्णय एक महिला डॉक्टर की याचिका पर आया जिन्होंने दावा किया था कि व्हाट्सएप उनका मौलिक अधिकार है और उसका अकाउंट ब्लॉक करना कानून के खिलाफ है।
डॉक्टर ने कहा कि वह पिछले दस से बारह साल से अपने मरीजों से बातचीत करने और चिकित्सा परामर्श देने के लिए व्हाट्सएप का उपयोग कर रही थीं। उनका कहना था कि यह प्लेटफॉर्म उनके पेशेवर जीवन का अभिन्न हिस्सा है और बिना किसी पूर्व सूचना के अकाउंट ब्लॉक कर देना उनके अधिकारों का उल्लंघन है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस दलील को खारिज करते हुए कहा कि कोई भी निजी संस्था किसी नागरिक को सेवा देने के लिए बाध्य नहीं की जा सकती।
जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने यह साफ किया कि व्हाट्सएप एक निजी कंपनी है और इसकी नीतियां सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं हैं। उपयोगकर्ता जब इस प्लेटफॉर्म पर खाता बनाते हैं तो वे उसकी शर्तों को स्वीकार करते हैं। अगर कोई उन शर्तों का उल्लंघन करता है तो कंपनी को अधिकार है कि वह सेवा बंद कर दे। अदालत ने यहां तक कहा कि डॉक्टर चाहे तो अन्य प्लेटफॉर्म जैसे अराट्टाई ऐप का उपयोग कर सकती हैं जो भारतीय कंपनी जोहो द्वारा संचालित है।
अदालत ने अपने फैसले में यह भी जोड़ा कि डिजिटल माध्यम जरूरी हैं लेकिन इनका उपयोग सीमाओं में रहकर किया जाना चाहिए। किसी निजी कंपनी की सेवा को मौलिक अधिकार का दर्जा देना संविधान की भावना के अनुरूप नहीं है। अदालत ने कहा कि यदि कोई कंपनी अनुचित व्यवहार करती है तो उसका समाधान न्यायिक या नियामक माध्यमों से किया जा सकता है लेकिन इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या मौलिक अधिकार से नहीं जोड़ा जा सकता।
इस मामले के दौरान डॉक्टर की ओर से यह तर्क भी रखा गया कि व्हाट्सएप जैसी सेवा को सार्वजनिक उपयोगिता की श्रेणी में लाया जाना चाहिए ताकि नागरिकों के अधिकारों की रक्षा हो सके। लेकिन अदालत ने इसे भी अस्वीकार कर दिया। अदालत ने कहा कि देश में संवाद के अनेक विकल्प मौजूद हैं और कोई व्यक्ति एक ही कंपनी के प्लेटफॉर्म पर निर्भर रहने के लिए मजबूर नहीं है।
इस फैसले ने यह संदेश दिया है कि डिजिटल दुनिया में उपयोगकर्ताओं को अपनी जिम्मेदारी और सीमाओं का भी ध्यान रखना होगा। हर सेवा का अपना नियम और ढांचा होता है। यदि कोई प्लेटफॉर्म सेवा बंद करता है तो यह व्यक्तिगत अधिकार का हनन नहीं बल्कि उसके संचालन का हिस्सा है।
अंत में अदालत ने डॉक्टर को सलाह दी कि वह अपने पेशे के लिए दूसरे सुरक्षित और भरोसेमंद प्लेटफॉर्म का उपयोग करें। अदालत ने यह भी कहा कि डिजिटल युग में संवाद के लिए विकल्पों की कोई कमी नहीं है। उपयोगकर्ता को विवेकपूर्ण तरीके से ऐसा प्लेटफॉर्म चुनना चाहिए जो उसके काम के अनुकूल हो।
यह फैसला केवल एक व्यक्ति के लिए नहीं बल्कि हर डिजिटल नागरिक के लिए एक सीख है। मौलिक अधिकार नहीं WhatsApp यह वाक्य अब उस सीमा को दर्शाता है जहां तकनीक और संविधान के अधिकारों की रेखा अलग-अलग खड़ी होती है।
